श्री स्वामी जी महाराज जी स्थितप्रज्ञ के तीसरे लक्षण में समझाते हैं कि शुभाशुभ संयोग में हर्ष और द्वेष न करना , प्रसन्नता तथा घृणादि भाव न लाना , अनुकूल तथा प्रतिकूल व्यक्ति अथवा वस्तु के संयोग में सममनः स्थिति रख कर कर्तव्य कर्म करते जाना स्थिर बुद्धि का लक्षण है ।
शुभ के संयोग को शुभ जानना और अशुभ के संयोग को अशुभ समझना तो शुभाशुभ का ज्ञान है जिसका होना कर्मयोगी के लिए अतीव उचित है, परंतु शुभ में राग और अशुभ में द्वेष का होना बुद्धि की विषमता है, तथा समभाव का अभाव है ।
इसलिए जो जन शुभाशुभ के संयोग में समभाव से कर्तव्यपारायण बना रहे , राग - द्वेष में न फँसे , उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है यह स्थिरप्रज्ञ का तीसरा लक्षण है.
जय जय श्री राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
शुभ के संयोग को शुभ जानना और अशुभ के संयोग को अशुभ समझना तो शुभाशुभ का ज्ञान है जिसका होना कर्मयोगी के लिए अतीव उचित है, परंतु शुभ में राग और अशुभ में द्वेष का होना बुद्धि की विषमता है, तथा समभाव का अभाव है ।
इसलिए जो जन शुभाशुभ के संयोग में समभाव से कर्तव्यपारायण बना रहे , राग - द्वेष में न फँसे , उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है यह स्थिरप्रज्ञ का तीसरा लक्षण है.
जय जय श्री राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
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