जय जय राम जी 🌹
श्री स्वामी जी महाराज जी श्री मद्भगवद्गीता भाषा के पांचवे अध्याय में समझाते हैं कि *स्थिर बुद्धि* , मोह (अज्ञान ),ब्रह्म का ज्ञाता और ब्रह्म में स्थित मनुष्य *प्रिय* को (अनुकूल वस्तु को ) पाकर बहुत *प्रसन्न न होवे* और *अप्रिय* को पाकर *दुखी ना होवे ।*
इष्टानिष्ट के लाभ में सम रहने का यत्न करें ।
बाहर के (अनुकूल -प्रतिकूल )विषयों में न आसक्त होने वाला मनुष्य, जो सुख , अपनी आत्मा में प्राप्त करता है वह ब्रह्म के योग में लीन आत्मा, अक्षय आनन्द को अनुभव कर लेता है ।
*अंतर्मुख होकर मनुष्य को जो सुख प्रतीत होता है, जो विषयों से ऊपर आनन्द अनुभव होता है*, ब्रह्म में लीन मनुष्य को वैसा ही अक्षय सुख हुआ करता है ।
बाहर के विषयों से हट कर आत्मा में अंतर्मुख होने का सुख और ब्रह्म में लीन होने का सुख दोनों सम हैं । भेद यही है कि समतायुक्त समाधि का सुख समाधि के *पश्चात् भूल जाता* है और *ब्रह्म में रहने का सुख क्षय रहित है* ।
जो मनुष्य शरीर छोड़ने से पहले इसी देह में ही *कामना और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन कर सकता है वह योगी है* । वह सुखी मनुष्य है । वह निर्वाण पद को जाता है ।
निर्वाण का अर्थ है जिस ब्रह्मधाम में काल का , जन्म मरण का और परिवर्तन का "वाण" नहीं काम करता है , वह दु:खरहित परम सुखमय धाम ब्रह्म निर्वाण है ।
जय जय श्री राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
www.shreeramsharnam.org
श्री स्वामी जी महाराज जी श्री मद्भगवद्गीता भाषा के पांचवे अध्याय में समझाते हैं कि *स्थिर बुद्धि* , मोह (अज्ञान ),ब्रह्म का ज्ञाता और ब्रह्म में स्थित मनुष्य *प्रिय* को (अनुकूल वस्तु को ) पाकर बहुत *प्रसन्न न होवे* और *अप्रिय* को पाकर *दुखी ना होवे ।*
इष्टानिष्ट के लाभ में सम रहने का यत्न करें ।
बाहर के (अनुकूल -प्रतिकूल )विषयों में न आसक्त होने वाला मनुष्य, जो सुख , अपनी आत्मा में प्राप्त करता है वह ब्रह्म के योग में लीन आत्मा, अक्षय आनन्द को अनुभव कर लेता है ।
*अंतर्मुख होकर मनुष्य को जो सुख प्रतीत होता है, जो विषयों से ऊपर आनन्द अनुभव होता है*, ब्रह्म में लीन मनुष्य को वैसा ही अक्षय सुख हुआ करता है ।
बाहर के विषयों से हट कर आत्मा में अंतर्मुख होने का सुख और ब्रह्म में लीन होने का सुख दोनों सम हैं । भेद यही है कि समतायुक्त समाधि का सुख समाधि के *पश्चात् भूल जाता* है और *ब्रह्म में रहने का सुख क्षय रहित है* ।
जो मनुष्य शरीर छोड़ने से पहले इसी देह में ही *कामना और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन कर सकता है वह योगी है* । वह सुखी मनुष्य है । वह निर्वाण पद को जाता है ।
निर्वाण का अर्थ है जिस ब्रह्मधाम में काल का , जन्म मरण का और परिवर्तन का "वाण" नहीं काम करता है , वह दु:खरहित परम सुखमय धाम ब्रह्म निर्वाण है ।
जय जय श्री राम ।
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